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सोमवार, 29 मार्च 2021

कोरोना और मैं कविता | Poem no Corona and I | कोरोना पर कविता इन हिंदी | कविता कोरोना/ सागर गोरखपुरी

                             कोरोना और मैं

            इक ज़हर हवा में इस क़दर फैल गया।
            हर शख्स को ये बेवजह यूँ ही रौंद गया।
            देखती हूँ पलट के पीछे तो नज़रा ही बदल गया।
            सजाए थे जो ख्वाब बिखर के खाक हो गया।।

 देखा था मैनें भी उस वक़्त,  घर से बाहर निलकर।
 क़तारें दूर तलक लगी हुई थी परचून की दुकान पर ।
 सब्जियों के ठेले गली मोहल्ले में घुमां करते थे।
 सड़ी गली सब्जियों के दाम भी आसमान छुआ करतें थे।।
           कुछ वक्त गुज़रा, हालात और भी नासाज हो गयी।
           प्रवासी मजदूरों की तकलीफें बेहिसाब हो गयी।
           भूखे और लम्बे सफर ने उन्हें झकझोरकर रख दिया।
            घर पहुंचे तो घर वालों ने उन्हें नकार दिया।।

 एक अरसा हो चला है आर्थिक मंदी,कम ना हुई।
 देश की हालत नासाज है परेशानी कम ना हुई।
 इक छोटी सी गलती से पूरी दुनियाँ तबाह हो गई।
 देखकर ये मंज़र मैं सहम सी गई।।
         पड़ोस वाली दादी को मैं कोरोना से बचा ना सकी।
         कोशिश करके भी उन्हें अस्पताल लेजा ना सकी।
         ख़ौप इस क़दर कोरोना का हमारी जहन में था।
         चाहकर भी उन्हें मैं बचा ना सकी।।

हर सुबह मेरी बेचैनियों सी गुज़री, रात घबराहट में कट गयी।
सुबह से शाम,शाम से रात ज़िन्दगी बस उलझनों में बीत गयी।
काफी लंबा अरसा हो बीत चुका है लाचारी अभी कम ना हुई।
लाख उपाय करके भी मैं कोविड-19 से बच ना पाई।।

                     दिनाँक 20 मार्च 2021  समय   11.00 रात
                                              रचना(लेखक)
                                            सागर(गोरखपुरी)

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