कविता
एक छोटी सी ना
छपाक सी बस एक आवाज थी आयी।
जीवन बादरंगी मेरी, वो बना गया।
एक छोटी सी बस ना ही तो कही थी मैंने।
तेज़ाब से कमबख्त मुझे वो जला गया।।
सोच के जिसे रोएं थरथरा जाते हैं मेरे।
वही दर्द मुझे वो सौंप गया।
खुशियाँ थी मैं बाबा के आंगन की।
सारी खुशियाँ, पल में वो चुरा गया।
एक छोटी सी बस ना ही तो कही थी मैंने।
आईने से नफरत सी हो गयी हैं मुझे।
ऐसा ज़ख्म मुझे वो दे गया।
खुद को देख मैं खुद सहम जाती हूँ।
इतना बदसूरत मुझे वो कर गया।
इक छोटी सी बस ना ही तो कही थी मैंने।।
खुद की नज़रों से दुनियाँ हसीन लगती हैं मुझे।
मेरी दुनियाँ ही वो मुझसे छीन गया।
कहने को तो समाज का इक हिस्सा हूँ मैं।
सामाजिक ज़िल्लत मुझ पर वो थोप गया।
एक छोटी सी बस ना ही तो कही थी मैंने।
दर्द, चुभन , आँशु, और घुटन ।
इतने सौगातें मुझे वो सौंप गया।
उड़ते थे कभी हम, खुले निल गगन में।
आसमान भी हमसे वो छीन गया।
एक छोटी सी बस ना ही तो कही थी मैंने।
तेजब से कमबख़्त मुझे वो जला गया।।
दिनाँक 08 मार्च 2021 समय 9.30 रात
रचना(लेखक)
सागर(गोरखपुरी)
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