मेरे आँगन की मिट्टी से
यक़ीन कर थाम मेरी उंगली मेरे घर तक तो चल ले।वहाँ की सरसराती हवाओं से तु इश्क़ तो फ़रमा ले।।
मैं छोड़ चला आऊंगा उस दरीचे को जहाँ मैं जन्मा।
एक बार मेरे आँगन की मिट्टी से तू मुलाक़ात तो कर ले।।
तेरे धूल और धुएं भरे शहर से तो मेरा गाँव बहुत अच्छा है।
शुकून और ताजगी का वहाँ एहसास अभी भी ज़िंदा है।
मैं फिर भी सब छोड़ चला आऊंगा जो कुछ भी मेरा है।
एक बार मेरे आँगन की मिट्टी से तू मुलाक़ात तो कर ले।।
जो तस्वीर बना रखी है मेरे गाँव की तू ने अपने आँखों में।
ऐसा दिखता ही नही मेरा गाँव जैसा तुम समझती है।
बगीचे की घनी छाँव, कुंए का ठंडा पानी, माँ के हाथ की वो चाय मैं सब छोड़ आऊंगा।
एक बार मेरे आँगन की मिट्टी से तू मुलाक़ात तो कर ले।।
तु कहती है आशियाँ नही बनाना वहाँ, कहीं और बस जाना है।
तुम्हे क्या पता कितनी शिद्दत से उस आशियाँ को मैंने बनाया है।
मैं सब छोड़ चला आऊंगा जो यादें वहाँ की मैंने समेट रखी है।
एक बार मेरे आँगन की मिट्टी से तू मुलाक़ात तो कर ले।।
आ करके देख तो वहाँ की दुनियाँ कितनी हँशी है।
मैं फिर भी सब छोड़ चला आऊंगा तेरी दुनियाँ में।
एक बार मेरे आँगन की मिट्टी से तु मुलाक़ात तो कर ले।।
दिनाँक 10 जुलाई 2021 समय 10.30 सुबह
रचना (लेखक)
सागर (गोरखपुरी)
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