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सोमवार, 24 मई 2021

मई 24, 2021

क्यूँ छोड़ देते हो उन्हें | Poem on Why leave them | कविता बृद्धाश्रम | बृद्धाश्रम/ सागर गोरखपुरी | बृद्धाश्रम पर कविता | माता पिता पर कविता | हिंदी कविता बृद्धाश्रम |

                               क्यूँ छोड़ देते हो

किसी दूसरे की चौखट पर क्यों छोड़ आते हो उन्हें।
दर दर भटकता,भूख मार देते हो क्यूँ उन्हें।
अपनी खुशियों की खातिर क्यूँ बांट लेते हो महीनों में उन्हें।
बुढ़ापे में तन्हा क्यूँ छोड़ देते हो उन्हें।।

कभी फुर्शत में बैठकर उनका हाल तो पूछ लो।
कोई गिला है उनको तुमसे, कभी ये तो जान लो।
बचपन में जिनकी उंगलिया सहारा हुआ करती थी।
बुढ़ापे में तन्हा क्यूँ छोड़ देते हो उन्हें।।
क्या देखा नही तुमने कभी उनके कांपते हाथों।
चेहरे की झुर्रियां क्या तुम्हें नज़र आती नही।
क्यूँ चले आते हो मंदिरों के बाहर इन्हें बिठाकर।
बुढ़ापे में तन्हा क्यूँ छोड़ देते हो उन्हें।।

भूखे प्यासे रहकर जो तुम्हे ज़िंदा रखतें हैं।
आंखों में बिलखते आँशु लिए बृद्धाश्रम में मिलतें हैं।
जिनकी छाओं में तुम्हारा जीवन बीत जाता है।
बुढ़ापे में तन्हा क्यूँ छोड़ देते हो उन्हें।।
माथे की शिकन, कमज़ोर नजर, बूढा और लाचार बदन।
इस हाल में उनके अपने, एक तुम ही तो हो। 
फिर क्यूँ कर देते हो उनके बर्तन भी अलग।
कैसा मन है तुम्हारा, तुम क्या हो गए हो
ये सोच के मैं भी डर जाता हूँ।।

ये दिल है तुम्हारा या कोई पत्थर।
बुढ़ापे में तन्हा क्यूँ छोड़ देते हो उन्हें।।

                दिनाँक- 18 मई 2021    समय-5.00 शाम
                                                    रचना(लेखक)
                                                 सागर (गोरखपुरी)

रविवार, 9 मई 2021

मई 09, 2021

फुटपाथ | हिंदी कविता | POEM ON Sidewalk | फुटपाथ/सागर गोरखपुरी | फुटपाथ पर कविता | कविता ज़िन्दगी फुटपाथ की | फुटपाथ से फलक तक कविता |

                                       फुटपाथ

बड़ी अजीब है ये दुनिया जो फुटपाथों पर गुजरती है।
यहाँ कोई नही अपना रातें भी अजनबी सी कटती है।
हम थक्कर सो जातें है रातों को इसकी बाहों में ।
यहाँ सभी गैर हैं हमदर्द कोई अपना मिलता नही हैं।।

दिन भर यहां उथल पुथल सी ज़िंदगी होती है।
हर रोज यहाँ भूखे लोगों की लाश मिलती है।
हर किनारे पर कोई ना कोई ख्वाब सँजोए बैठा है।
कितनी जिल्लत और मुसीबत भरी रात यहाँ कटती है।।
वस्त्रहीन बेजान शरीर भूखा और नंगा बदन।
तप रहा है धूप में जल रहा है पूरा जिश्म।
सपने सारे खाक हो गयें मंज़िले कारवां भी छूट गया।
हार गया मैं खुद से ही, अब तो फुटपाथ ही मेरा घर बन गया।।

यहां हर किसी की अपनी एक कहानी है।
ना कोई राजा है ना कोई ना रानी है।
कोई घर से भाग आया है ख्वाबों का जहां तलाशने।
कोई बिना ख्वाबों के ही यहां उम्मीद लगाए बैठा है।।
भूख और भूखेपन से दोस्ती सी हो गयी है।
फुटपाथ पर यूँ ही ज़िन्दगी कहीं गुम हो गयी है।
चले थे घर से जब दिल में अरमान और उम्मीद लिए।
सोच ना था इन्ही फुटपाथों पर ज़िन्दगी यूँ ही बसर होगी।।

बड़ी अजीब है ये दुनिया जो फुटपाथों पर गुजरती है।
यहाँ कोई नही अपना रातें भी अजनबी सी कटती है।।

                दिनाँक 08 मई 2021       समय 04.45 शाम
                                               रचना(लेखक)
                                            सागर (गोरखपुरी)

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