कविता
(इस कविता में मैने एक माँ के लिए उसकी बेटी की सोच लिखी हैं)
माँ ही थी
ठंड से मैं कांप रही थी ।
आहट सी महसूस हुई।
आँख खुली तो कोई नही था ।
आहट नही वो माँ ही थी
ओढा के चादर वो चली गयी।
और ठंड से मुझे बचा गई।
आँख खुली तो कोई नही था।
आहट नही वो माँ ही थी।।
बुखार से मैं तप रही थी।
जाने कब माथा सहला गई।
दवाइयों से नफरत है मुझे।
कब दूध में घोल वो पिला गई।
आँख खुली तो कोई नही था।
आहट नही वो माँ ही थी।।
मेरी हर चीज की फिक्र करती है वो।
और अपनी ही फिक्र वो भुला बैठी।
हमारे सपनों के चक्कर मे वो।
अपनी दुनियां भुला बैठी।
ये सोच मैं नींद से जग गयी।
घबराकर मैं बैठ गयी।
आँख खुली तो कोई नही था।
आहट नही वो माँ ही थी।।
उसके भी हैं कुछ अपने सपने।
कुछ उसके अरमान भी है
चूल्हा चौक बच्चे शौहर।
इनसे कहाँ उसे निज़ात है।
पसीने से मैं तरबतर थी।
माँ की घोल का कमाल था।
आँख खुली तो कोई नही था।
आहट नही वो माँ ही थी।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें