कविता
बलात्कार Rape
नोच रहे थे जिस्म सब मेरा,बेरहमी से हमें दबोच रहे थे।फाड़ रहे थे कपड़े मेरे,नाखूनों से हमें कुरेद रहे थे।
मैं चीखी भी चिल्लाई भी, बहुत गुहार लगाई भी।
बेबस और लाचार पड़ी थी हमदर्दी किसी ने दिखाई नही।।
मैं भाग रही थी वो खींच रहे थे।
ज़मीन पर मुझे वो घसीट रहें थे।
वस्त्रहीन मैं बेहोस पड़ी थी।
वो नोच रहे थे बस,वो नोच रहे थे।।
कभी डर रही थी कभी मैं रो रही थी ।
घबराके वहीं एक कोने में सिमट रही थी।
शर्म सार से मैं नग्न पड़ी थी।
उनकी निगान्हे मुझे घूर रही थी।।
एक पल में मुझसे सब कुछ छीन गया।
पूछो ना अब क्या मेरी हालत है।
ज़िल्लत भारी ज़िन्दगी अब हैं मेरी।
अब बस तोहमत ही बस तोहमत हैं।।
मिले हर ऐसे शख्स को कड़ी सजा।
जो हमारे सपने हमसे छीन रहें हैं।
अपने हवस की खातिर वो हमें।
ज़िन्दा लाश बनाकर बस छोड़ रहें।।
शर्म आती है मुझे ऐसे ज़िन्दगी पर ।
अब सबके लिए मै सिर्फ एक दोसी हूँ।
चुभती हैं अब सबकी घिनौंनी निगान्हे।
यूँ ही घूट घूटकर ये ज़िन्दगी कटती है।।
घूट घूटकर ये ज़िन्दगी कटती है।।
दिनाँक 23 नवम्बर 2020 समय 1.00 दोपहर
रचना(लेखक)
सागर(गोरखपुरी)
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