कविता
सुकून की तलाश
कैसे कहूँ की सुकून की तलाश में फिरता हूँ मैं |
कभी एकांत, कभी समसान, आवारा बनकर घूमता हूँ मै |
खाव्बों में भी अब तो सुकून मिलता नहीं मुझे यकीं मानों |
अब तो रातों में सितारों से हर रोज झगड़ता हूँ मैं ||
फुर्सत के पल तलाशता रहता हूँ मै |
तुझे ढूंढते हुए कितनी गलियों से गुज़र जाता हूँ मै |
हर शख्श मुझे, अब तुझसा क्यूँ लगता है |
अब तो उजालों में भी आहट से डर जाता हूँ मै ||
क्यूँ आँखों में नींद लिए फिरता हूँ मै |
चलते चलते हाथों से थैले छोड़ दिया करता हूँ मै |
ये तेरे इश्क का असर है या फिर मेरी उम्र का तकाजा |
क्यूँ भीड़ में रहकर भी इतना तनहा हो जाता हूँ मै ||
दम घुटता है खुली हवा में, फिर भी जिंदा हूँ मै |
आहटें हैं तेरी फिर भी क्यूँ ढूंढता हूँ मै तुझे |
लौटा हूँ फिर से तेरे साये में एक बार मै |
शायद तुझमे जिंदा ही नहीं हूँ मै ||
दौड़ती रहती है तू हर वक़्त मेरे दिलों दीमाग पर |
शाया हो जैसे बादलों का घनी छाओं पर |
थक सा जाता हूँ तो बैठ जाता हूँ इन्ही घनी छाओं में |
शुकून की तलाश में तो मारा मारा फिरता हूँ मै ||
दिनांक 11 फ़रवरी 2021 समय 09.20 सुबह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें