कविता
गाँव बहुत याद आता है
सोंधी सी खुशबू है उसकी।मेरे सपनो का वो संसार है।
बचपन गुज़रा था जहाँ पर मेरा।
वही तो अब सपनों का गाँव है।।
राम लीला तो कभी मुहर्रम जहाँ सब साथ मानते है।
ईद, दीवाली, होली, दशहरे में सब घुल मिल जाते है।
सीतल है हवा वहाँ की पूर्वा, पछुआई खूब बहती है।
याद जब भी गाँव की आई आँखों मेरी भर आईं है।।
बचपन गुज़रा, कुछ पल जवानी के भी गुज़रें है।
कुछ नही अब हाथों में सिर्फ पुरानी यादें हैं।
वो गलियां वो आँगन क्या मुझ बिन सुना लगता हैं।
क्या लौट चलू अब घर को, याद गाँव बहुत आता है।।
घनी छाँव बगीचों की अब तो यादों में ही रह गयी हैं।
उमंगों की उड़ान जैसे चार दिवारी में ही फँस सी गयी हैं।
वो खेत, खलिहान, कोहरे की वो दीवार, शबनम की चादरें शायद छूट गई है सब मुझसे,अब गाँव बहुत याद आता है।
क्या लौट चलू अब घर को, याद गाँव बहुत आता है।।
हर शाम वहाँ की हसीन है हर घर की अपनी एक कहानी है।
मेरे भी हैं कुछ ख्वाब वहाँ के कुछ पल वहाँ भी बितानी है।
वक़्त और फुर्सत बन्द कमरों में तलासते रहते है।
खुला आसमान जब ढूंढते है तो गाँव की याद आती है।
क्या लौट चलू अब घर को, याद गाँव बहुत आता है।।
दिनाँक 23 जनवरी 2021 समय 11.00 रात
रचना(लेखक)
सागर(गोरखपुरी)
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