बेटियां
घर वही, आंगन वही, सारे रिश्ते नाते सब वही।
दिन वही, रातें वही, मां का आँचल पिता का शाया वही।
जब सब कुछ वही है तो मेरा आंगन मेरा क्यूं नही।
जो घर कभी हमारा भी था बेटियों के लिए उनका घर उनका क्यूं नही।।
बाबा मैं तेरी गुड़िया वही, आंगन की सोन चिरईया वही।
तेरी चिंता वही, फिक्र वही, पर उस घर में मेरी याद क्यूं नही।
जिस दहलीज़ से तूने बिदा किया उसमें क्यूं मेरा प्रवेश नही।
जो घर कभी हमारा भी था बेटियों के लिए उनका घर उनका क्यूं नही।।
माँ तुम वही, बाबा वही, पर भाई और मैं एक जैसे क्यूं नही।
हम सब एक जैसे ही तो है पर मैं तुम जैसी क्यूं नही।
मेरा कोई दोष नही जो जनमी बेटी बनकर मैं।
फिर क्यूं इतना क्रोध है मुझसे, बेटे के लिए क्रोध क्यूं नही।
जो घर कभी हमारा भी था बेटियों के लिए उनका घर उनका क्यूं नही।।
मुझे कुछ ना चाहिए उस दुनियां से, फिर भी क्यूं मेरे लिये वहां प्यार नही।
क्या इतने बेगाने हो गये हैं हम की दीवारों पर भी कोई निशान नही।
जननी है वहां की माटी मेरी, उस माटी से क्यूं मेरी पहचान नही।
जो घर कभी हमारा भी था बेटियों के लिए उनका घर उनका क्यूं नही।।
"बेटियों के लिए उनका घर उनका क्यूं नही"।।
दिनाँक : 18 सितंबर 2022 समय : 10: 10 सुबह
रचना(लेखक)
सागर गोरखपुरी
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