बदनाम गली
मैंने अक्सर उन गलियों में जिंदगी को सिसकते देखा है।
हंसते चेहरे में बेबस और परेशानी इंसान भी देखा है।
हम जैसे ही है सब वहां कोई फर्क नही है उनमे।
मैंने उन बदनाम गलियों में भी पाक इंसान रहते देखा है।
सहूलियत तो ना के बराबर है वहां, चंद पैसों में जिस्म बेचते देखा है।
शिक्षा असुविधा के बिना भी, उनमें जिंदा रहने का हुनर देखा है।
तुमने सिर्फ जिस्म देखा है उनका, उनमें बैठा इंसान कहां देखा है।
मैंने उन बदनाम गलियों में भी पाक इंसान रहते देखा है।।
वो भी है हमारी तरह फिर भी लोगों को उनसे कतराते देखा है।
जाति,धर्म का तनिक भी भेद नहीं, हर मजहब के लोग आते वहां देखा है।।
उनके भी है कई ख्वाब अधूरे उमंगों के शैलाब भी उनमें देखा है।
तुमने सिर्फ बदन नोचा है उनका, क्या कभी उनका दिल भी देखा है।
मैंने उन बदनाम गलियों में भी पाक इंसान रहते देखा है।।
सिद्धत, मुहब्बत, कर्म, विश्वास, का एहसास वहां देखा है।
रोजी, रोटी, धंधा, पानी, इन सब में भी भी ईमान देखा है।
पैसे पैसे के लिए उन्हें अपना जिस्म बेचते देखा है।
तुमने सिर्फ जिस्म देखा है उनका, उनमें बैठा इंसान कहां देखा है।
मैंने उन बदनाम गलियों में भी पाक इंसान रहते देखा है।।
मैंने वहां जिस्म से बेहतर, रूहानियत से भरे इंसान देखे है।
तुमने कभी सुना है उनको मैंने घंटो सुना है उन्हें।
अब वो भी समाज मे सम्मान चाहती है बदनाम गलियों में भी खुला आसमां मांगती है।
मैंने ख्वाहिशों को समेटे उन्हें मरते देखा है।
तुमने सिर्फ जिस्म देखा है उनका, उनमें बैठा इंसान कहां देखा है।
मैंने उन बदनाम गलियों में भी पाक इंसान रहते देखा है।।
दिनाँक : 25 सितंबर 2022 समय : 11:00 सुबह
रचना(लेखक)
सागर गोरखपुरी
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