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बुधवार, 16 दिसंबर 2020

मुक़म्मल इश्क़ कविता | love poem | प्यार पर कविता | कविता मुक़म्मल जहां | इश्क़ पर कविता | Poem on Complete love | Romance poem

                                   कविता

                              मुकम्मल इश्क़

गम नही की मुक़म्मल हमारा इश्क़ ना हुआ।
यूँ ही ना जाने क्यूँ इश्क़ उनसे बे इम्तेहां हुआ।
मीठे लफ्जों से शुरू की थी जो मुहब्बत की दास्तां।
तीखे जुबान से बस ये सिसिल यूँ ही खत्म हुआ।।
सही थे तुम हर वक़्त मैं ये जानता था मग़र।
कभी मेरे निगाहों से मुझे भी देख लिया होता।
अब जो हालात हैं वो कभी होते ही नही।
एक बार झूठे ही सही,बस यूं ही इक़रार कर लिया होता।।
तेरी उम्मीदों पर बेशक हम खरे ना उतरें।
मेरी उम्मीदें भी तुझसे बेवजह तो नही थी।
कच्चे धागे से तुरपा था हमने जो रिश्तों का मियांन।
इतने कच्चे थे कि बस यूँ ही उधड़ गये।।
उलझती है डोर जैसे,वैसे उलझ सी जाती हो।
सुलझाऊँ जितना भी,खींचकर गांठ बन जाती हो।
मुक़म्मल इश्क़ की खातिर हर डोर सुलझाता हूँ।
कभी खुद का,तो कभी तेरा गुन्हेगार बन जाता हूँ।।
तेरी नजरों से हर वक़्त गिरते हैं सम्भलतें हैं।
सहारा ढूंढते हर हैं पल,हर बार फिसलतें हैं।
कैसे कहूँ मैं वही हूँ,जो पहली मुलाक़ात मे था।
वही सितारा हूँ जो हर वक़्त तुझ पर टिटिमाता था।।
                    
                      ना वो समझते हैं ना मैं समझता हूँ।
                     बस दिल समझता है मुक़म्मल इश्क़ ना हुआ।।

            दिनाँक 15 दिसम्बर 2020  समय 10.00 रात
                                               रचना(लेखक)
                                             सागर(गोरखपुरी)

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