क्यूँ डूब जातें हैं
लड़खड़ाते हैं कभी हवाओं में झूम जातें है।पांव रखते है जमीन पर और बहक जाते है।
कतरा कतरा जाम हर शाम हम छलकाते है।
नशे में रहकर भी तेरे खयालों में क्यूँ डूब जाते है।।
तेरे तस्वीर को यूँ ही बेवजह निहारते हैं।
यादों के भवँर में जाने कितने अश्क बाह जाते हैं।
ढलती सांझ में उलझने के सैलाब बन जाते है।
नशे में रहकर भी तेरे खयालों में क्यूँ डूब जाते है।।
तेरा ज़िक्र लबों पे जब भी आये, कहीं खो जाता हूँ।
बेचैनियां इतनी बढ़ती हैं मैं पागल हो जाता हूँ।
हर दिन हर शाम अब तो मैखाने में गुजरती है।
नशे में रहकर भी तेरे खयालों में क्यूँ डूब जाते है।।
तेरा फिक्र तेरा ख्याल मुझमे कहीं ज़िंदा है।
करवटें जब भी लेता हूँ तु आंखों से बहता है।
वक़्त के साथ मैं भी ढल जाना चाहता हूँ।
तेरे आगोस में आके सो जाना चाहता हूँ।
यकीन कर मेरा तुझमें ही ठहर जाना चाहता हूँ।
फुर्सत के उन लम्हों में खो जाना चाहता हूँ।
यही ख्वाहिश लिए कदम मधुशाला की ओर बढ़ जाते हैं।
नशे में रहकर भी तेरे खयालों में क्यूँ डूब जाते है।।
एक तू ही तो हैं जिसके बैगैर सांसे कहाँ चलती हैं।
कोरे कागज पर अब मेरी कलम नही लिखती हैं।
तेरी यादों को मिटाने हर शाम मैखाने पहुंच जाते हैं।
नशे में रहकर भी तेरे खयालों में क्यूँ डूब जाते है।।
दिनाँक 12 अगस्त 2021 समय 10.00 सुबह
रचना (लेखक)
सागर (गोरखपुरी)
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